कभी कभी लोग ये शिकायत करते हैं कि भारत के सही इतिहास पर काम ही नहीं हुआ | आम तौर पर इस सवाल के जवाब में हम कहते हैं कि भारतीय लोगों ने काम कम किया है, लेकिन नहीं हुआ ऐसा नहीं है | कई बार जब किताबें लिखी गई, तो उन्हें दबा दिया गया | कभी कभी किताबों के हिंदी में या अन्य भारतीय भाषाओँ में ना होने के कारण भी आम लोगों को पता ही नहीं होता कि जानकारी कहाँ से जुटाई जा सकती है |
इनकी वजह से कई साहित्यकारों को भी इतिहासकार का भेष धारण करने का मौका मिल गया है | अभी हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को कुछ आयातित विचारधारा के साहित्यकारों की किताब में बरसों से “आतंकवादी” बताये जाने का मामला उछला है तो कई लोगों का ध्यान गया होगा | इस तरीके से जो सत्ताईस साल से कई पीढ़ियों का ब्रेन वाश किया गया इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा ? ये पीढियां जब ऐसी ही किताबें पढ़-पढ़ कर बढ़ी हैं तो उनमें अपने देश के लिए गर्व-सम्मान जैसी भावनाएं कहाँ होंगी ?
हाल के सालों तक आप “सरस्वती” नदी को “मिथक” भी पढ़ते रहे होंगे | हाल के तकनिकी विकास के साथ जब सैटलाइट तस्वीरों में नदी साफ़ नजर आने लगी तो आखिर में जाकर आयातित विचारधारा वालों ने मानना शुरू किया है कि सरस्वती नाम की नदी सच में होती थी और घाघरा-झज्झर घाटियों में उसी के अवशेष हैं | इसके साथ ही सिन्धु नदी सभ्यता या हड्डपा सभ्यता पर से कई परदे भी उठने लगे हैं | जो आर्य आक्रमण का सिद्धांत था उसकी पोल भी खुल गई है |
ऐसे मौकों पर याद कर लेना चाहिए कि इतिहास तथ्यों पर आधारित होता है | ऐसे ही तथ्यों पर आधारित एक किताब है The Lost River | इसमें नक़्शे मिल जायेंगे, तथ्यों के टेबल हैं, रिफरेन्स की भी कोई कमी नहीं है | सबसे पहले तो ये एक खोई हुई सभ्यता पर रौशनी डालती है | इसमें इलाके का भूगोल है, इतिहास है और मिथकों-लोककथाओं का भी जिक्र है | जानकारी का स्रोत लोककथाओं से लिया गया है, वेदों, पुरातत्व और स्थानीय परम्पराओं से, भूगर्भ शास्त्र के अध्ययन से और इतिहास की जानकारी से भी प्रमाण जुटाए गए हैं |
ये किताब किस्से कहानियों से नदी को वास्तविक स्वरुप में खींच निकालने का एक प्रयास है | जिन आयातित विचारधारा के पोषकों ने नदी को एक मिथक करार दिया था उनके मूंह पर ये एक करारा तमाचा भी है | टोपोग्राफी के अध्ययन के लिए जब कुछ ब्रिटिश खोजियों को ये नदी, उन्नीसवी सदी में मिली थी उस समय से ये किताब पीछे की तरफ ले जाती है | उस काल के समाज का और सभ्यता का भी इस से कुछ अंदाजा मिलता है | साथ ही इस से “आर्यन इनवेष्ण” के झूठ का भी पर्दाफाश होता है |
कीमत के हिसाब से देखने पर, मेरा मानना है कि एक रुपये में दो पन्ने तो आने चाहिए | यानी तीन सौ रुपये की किताब में छह सौ पन्ने होने चाहिए | तो उस हिसाब से 368 पन्ने की ये किताब 246 रुपये में महंगी है | लेकिन फिर इतने शोध के बाद लिखी गई रोचक किताब महंगी नहीं लगती |
बढ़िया जानकारी वाला लेख