चलिए एक अजीब सा सवाल पूछ लें आपसे। अब बेइज़्ज़ती, दुर्व्यवहार, गाली-गलौच, शारीरिक प्रताड़ना, मार पीट, जान से मारने की धमकी, बेरोजगारी, आर्थिक तंगी कितने समय झेल सकते हैं ? दो चार मिनट ? घंटे-दो घंटे भर ? दो चार दिन ? कुछ हफ्ते या महीने ? 5-10 साल ? मेरा ख़याल है ज्यादा से ज्यादा 10-20 साल में आप ऊब जायेंगे, या तो पलट जवाब देंगे। या फिर पुलिस और न्याय व्यवस्था से मदद लेकर जुल्म करने वाले को सजा दिलवाने की कोशिश करेंगे। अगर चालीस साल से ज्यादा ऐसी प्रताड़ना झेलना पड़े तो क्या करेंगे ? अगर सरकारी तंत्र और समाज आपकी मदद से सिर्फ इंकार नहीं कर रहा हो बल्कि खुद भी ऐसे अन्याय कर रहा हो तब क्या करेंगे ? उस से भी बुरी बात की सही चीज़ के समर्थन लिए ऐसे जुल्म झेलने पड़े तब कैसा लगेगा ? चालीस साल के बारे में क्या कहेंगे ? अगर ये सब आपको चालीस (40) साल झेलना पड़े तो क्या करेंगे आप ?
ऐसा कोई समाज किसी एक आदमी के साथ क्यों करेगा भला ? अगर आप ऐसा सोच रहे हैं तो चलिए थोड़े साल पीछे चलते हैं, 1968 में चलते हैं जहाँ ओलम्पिक चल रहा था। मेक्सिको शहर रहे ओलम्पिक की तस्वीरें उस समय रोज़ अख़बारों में आती थी। एक रोज़ 200 मीटर स्प्रिंट दौड़ के पदक लेते खिलाडियों को देखकर पूरी दुनियां चौंक पड़ी। पहले और तीसरे स्थान पर इस रेस में दो अश्वेत युवक थे, जब पदक मिलने के बाद अमरीकी राष्ट्रगान बज रहा था तो दोनों ने सर झुका रखे थे, काले दस्ताने से ढका एक हाथ उठा रखा था। जीतने वाले तीनो खिलाड़ियां एक बैच भी लगा रखा था। ये अश्वेतों के खिलाफ होते भेदभाव का विरोध प्रदर्शन था। इन तीनों खिलाड़ियों के सीने पर जो बैच था वो Olympic Project for Human Rights का था, ये रंगभेद नीतियों के विरोध में और में और सभी खिलाड़ियों को समानता का अधिकार देने के समर्थन का बैच था। जो काले दस्ताने अश्वेत खिलाड़ियों ने पहने थे, वो ब्लैक पैंथर का समर्थन था।उनके पास तीन बैच नहीं थे, गोरे धावक ने अपना बैच उधार लिया था। उनके पास दो जोड़ी दस्ताने भी नहीं थे। आखिर उस श्वेत धावक ने सलाह दी थी की दोनों लोग एक दस्ताना पहन लें, इसलिए एक दाहिना दूसरे ने बायां हाथ उठाया। तीनों धावकों को पता था कि इस विरोध प्रदर्शन की कड़ी सजा मिलेगी। सजा का पता होने पर भी गोरे खिलाड़ी ने दोनों अश्वेत धावकों का साथ देने का फैसला लिया था।
ये वही समय था जब बॉबी कैनेडी और मार्टिन लूथर किंग जैसे नेताओं की मौत हुई थी। ऐसे दौर में अश्वेतों के अधिकार के लिए ये मौन प्रतिरोध जताने वाले अश्वेत अमरीकी धावक थे, टॉमी “The Jet” स्मिथ और जॉन कार्लोस। इनका नाम याद रखा गया। जैसा की होना ही था अमरीकी ओलम्पिक संघ के मुखिया ने इन्हें सबक सीखाने की कसम खाई। दोनों को रात में ही अमरीकी ओलम्पिक टीम से बाहर कर दिया गया और ओलम्पिक गेम्स विलेज से बाहर निकाल दिया गया। दुसरे नंबर पर आने वाले जिस ऑस्ट्रेलियाई धावक ने अमरीकी धावकों के संघर्ष के समर्थन में बैच लगाया था। इस ऑस्ट्रेलियाई के पास अपना बैच नहीं था, उसे बैच देने वाला भी एक अमेरिकी नाविक था, उसे भी निकाल बाहर किया गया।
इन तीनों धावकों और इनकी मदद करने वालों को अपना विरोध दर्ज कराने की सजा झेलनी पड़ी थी, और बरसों झेलनी पड़ी थी। लेकिन इन सबमें सबसे अनोखा था वो गोरा ऑस्ट्रेलियन। वो सिर्फ साढ़े पांच फुट का था, लेकिन वो करीब सवा छह फुट के स्मिथ और कार्लोस के साथ दौड़ रहा था, जो की अपने आप में एक कमाल था। आज उसे शायद ही कोई याद करता है। गोरे रंग के आदमी का अश्वेतों को समर्थन ! मूर्तियों में भी उसे नहीं दिखाते हैं।
इस ऑस्ट्रेलियन का नाम था पीटर नार्मन। सान जोस की यूनिवर्सिटी जहाँ अश्वेत अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करने वाले स्मिथ और कार्लोस की मूर्ती है, सिर्फ वहीँ से नहीं बल्कि ऑस्ट्रेलिया में भी पीटर नार्मन को भुला दिया गया है। 1972 के म्युनिक ओलम्पिक के 200 मीटर वाली रेस के लिए पीटर नार्मन ने 13 बार क्वालीफाई किया था, और 100 मीटर की रेस पांच बार, लेकिन उसे ऑस्ट्रेलियाई टीम में जगह नहीं दी गई। इसके बाद नार्मन कभी प्रो चैंपियनशिप जैसे मुकाबलों में हिस्सा नहीं ले पाये। वो अमेचर रेस में दौड़ते रहे। उनके पूरे परिवार को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया था। नौकरी मिलने में जो मुश्किलें थी वो तो थीं ही, परिचय मिलते ही मिली नौकरी भी छूट जाती थी। कभी वो किसी जिम में ट्रेनर हो जाते थे, कभी कभी कसाई का काम कर के गुजारा चलाते थे। इस दौरान रंगभेद के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया में उनका संघर्ष चलता रहा। एक एक्सीडेंट के बाद उन्हें इन्फेक्शन से गैंगरीन हो गया। इसके बाद लम्बे समय तक वो अवसाद में रहे और शराबी भी हो गए।

सन 2000 के सिडनी ओलम्पिक में उन्हें माफ़ करके टीम के साथ भेजने की बात चली। लेकिन पीटर नार्मन ने उस वक्त भी, बहुत बुरे हाल के वाबजूद, अपने साथ के अश्वेत खिलाडियों की निंदा करने से मना कर दिया। गरीबी और मुफलिसी कबूल ली लेकिन रंगभेद करने वालों से माफ़ी नहीं मांगी। उन्हें टीम में नहीं लिया गया। जब अमरीकी टीम को इस बात का पता चला तो उन्होंने पीटर नार्मन को अपने साथ बुलाया। अमरीकी खिलाडी माइकल जॉर्डन, पीटर नार्मन को अपना आदर्श मानते थे। इस तरह उन्हें माइकल जॉर्डन की जन्मदिन की दावत का उन्हें एक न्योता मिला। 2006 में एक दिन अचानक ही ह्रदय गति रुकने से पीटर नार्मन की मृत्यु हो गई। इस तरह गुमनामी और गरीबी में ऑस्ट्रेलिया के महानतम धावक का अंत हुआ।
अपनी श्रेणी, 200 मीटर की स्प्रिंट रेस में उनका बरसों पहले का रिकॉर्ड 20.06 सेकंड का था। ऑस्टेलिया के लिए ये राष्ट्रिय रिकॉर्ड कायम है। उनके राष्ट्रिय रिकॉर्ड को उनके जीवनकाल में, उनके रिकॉर्ड बनाने के समय से यानी करीब 50-60 साल में कोई ऑस्ट्रेलियाई नहीं तोड़ पाया है। उनपर हुए अन्याय की याद ऑस्ट्रेलिया को थोड़े साल पहले आई। 2012 में ऑस्ट्रेलियाई ने एक वक्तव्य जारी करके उनके योगदान को स्वीकारा और उन्हें राष्ट्रिय इतिहास जगह देने की बात शुरू की। ये माफ़ी तो कुकर्मों के सामने शायद कुछ भी नहीं, बल्कि जो उनके साथ हुआ उस पाप लिए कुकर्म शब्द भी छोटा पड़ेगा।
इधर हाल में जब कुछ भारतीय, भारतीय मूल के लोगों साथ रंगभेद सम्बन्धी हिंसा हुई तो पीटर नार्मन की याद आई। इस “असहिष्णुता” का अमेरिकी और ऑस्ट्रियाई लोगों का वर्तमान भी है और इतिहास भी। आप और हम भारत में रहते हैं, हम शायद छुआ छूत के ऐसे विभित्स रूप की कल्पना सकते। यहाँ गौर करने लायक ये भी है की जिस कोलम्बस, और वास्को डी गामा जैसों को भारत की खोज का श्रेय दिया जाता है वो ऐसे ही जातिवादी श्रेष्ठता के अहंकार वाले लोग थे। हम ऐसे लोगों का लिखा जहरीला और अधूरे सत्य वाला इतिहास पढ़ते हैं।
बाकि जिन्होंने ऐसे लोगों की ही श्रेष्ठता स्वीकारते हुए “भारत एक खोज” जैसे इतिहास लिखे उन तथाकथित “इतिहासकारों” का तो कहना ही क्या !
badhiya likha hai sir…