थोड़े पुराने ज़माने में, यानि कुछ दस साल पहले लेखक होना कठिन था। अपने रोजमर्रा के काम के बीच जब आप कुछ लिखते भी तो वो शायद आपकी डायरी, आपके नोट बुक के पन्नों में रह जाता। पाठक ज्यादा से ज्यादा कुछ मित्र होते, कभी कभी परिवार के एक दो सदस्य भी। ऐसे में जब सोशल मीडिया आया तो बातें काफी बदल गई। लेखकों की प्रकाशक से जान पहचान होना उतना जरूरी नहीं रहा। साहित्यिक खेमों और गिरोहों की पाबन्दी नहीं रही, मठाधीशों का एकाधिकार भी टूट गया।
ऐसे दौर में भी जब आप सोशल मीडिया पर किस्म किस्म के लेख पढ़ते होंगे तो शायद आपका ध्यान एक चीज़ पर गया होगा। जो पुरुष लेखक होते हैं, वो अपने प्रिय साहित्यिक, दर्शन जैसे विषयों के अलावा राजनैतिक मुद्दों पर भी लिख डालते हैं। लेकिन जब आप महिलाओं की प्रोफाइल में झांकेंगे तो लेखिकाएं आम तौर पर ऐसा करती नहीं दिखती। अनुपात के रूप में देखेंगे तो ज्यादातर महिलाएं साहित्यिक लेख पोस्ट करती दिख जाएँगी। वो कवियत्री हो सकती हैं। वो कथाएँ लिखेंगी, कभी कभी व्यंग भी। लेकिन आम तौर पर महिलाएं राजनीती के विषयों से परहेज करती हैं।
हिंदी साहित्य में भी देखेंगे तो उपन्यास ऐसे ही होते हैं। स्त्रियों के लिखे उपन्यास, कथा प्रधान होते हैं। कई बार उसमें नायिका ही प्रधान चरित्र होती है। लेकिन वो किताब राजनैतिक मुद्दे पर नहीं होती। सामाजिक रूढ़ियों पर हो सकती है, राजनैतिक कुचक्रों पर महिलाएं नहीं लिखती।
यही वजह है कि मन्नू भंडारी जब “महाभोज” लिख डालती हैं तो किताब पर लोगों का ध्यान तो फ़ौरन चला ही जाता है। “महाभोज” शब्द का अर्थ भी किताब की तरफ आकर्षित करता है। एक ऐसा आयोजन जिसमे सभी खाने के लिए आमंत्रित हों ! आखिर ऐसा क्या परोसा गया होगा जिसमें सभी शामिल होना चाहते हैं ? किसकी लाश है जिसपर राजनेता, अफसर, पत्रकार सब गिद्धों के झुण्ड की तरह टूट पड़े हैं ?
इस उपन्यास की कहानी एक विद्रोही स्वभाव के युवक, बिसेसर की मौत के चारों तरफ बुनी गई है। गाँव के इस युवक की मौत पर राजनीती कुछ ऐसी गरमाती है की मुख्यमंत्री भी उसके लपेटे में आ जाते हैं। इस मौत की तहकीकात कर रहे होते हैं एस.पी. सक्सेना। उनके सर पर अपने ही पुराने पापों का कुछ ऐसा बोझ है कि वो इस बिसेसर की मौत के मामले में ही सबका प्रायश्चित्त करने की सोच रहे हैं। उधर गरीब से बिसेसर के पिता हैं जो दो राजनैतिक विरोधियों के बीच पिसे जा रहे हैं। अपने बेटे की मौत का अफ़सोस भी नहीं कर पा रहे।
ये कहानी राजनैतिक चालों की है। उसके बचाव में चली गई दूसरी चालों की भी है। शतरंज की गोटियों की तरह अपनी जान पहचान अपने रसूख के इस्तेमाल की कहानी है “महाभोज”। इसे पढ़कर आपका अभी हाल की, हैदराबाद में हुई, किसी आत्महत्या पर भी ध्यान जायेगा। इस किताब को पढ़कर आपको बेचनी महसूस हो सकती है। इसे पढ़कर गुस्सा आ सकता है। इसे पढ़कर निराशा होगी। इस किताब से निकलकर एक लाचार आदमी की व्यथा आपके अन्दर घुस सकती है।
फिर भी अगर हिंदी में किताबें पढ़ते हैं और सवा सौ पन्ने की “महाभोज” आपने नहीं पढ़ी तो आपसे काफी कुछ छूट रहा है। ज्यादा महंगी किताब नहीं है, अगली फुर्सत में पढ़ डालिए।