भगवद्गीता अगर आज पढ़ने-सीखने बैठें तो एक समस्या ये भी आती है कि पुराने दौर जैसा आज गुरु नहीं होते। इसकी वजह से ज्यादातर जिज्ञासु एक बार में उसे पूरा किसी किताब की तरह पढ़ने की कोशिश करेंगे, जबकि गुरु ऐसे नहीं सिखा रहे होते। एक बार में एक ही श्लोक बताया जाता और उसी को मुख्य श्लोक मानकर, उससे मिलते जुलते अर्थ वाले और श्लोक बताये जाते। एक ही बार में पूरा समझने की कोशिश में, मेरी कभी कभी पचाने की क्षमता से ज्यादा ठूंस ठूंस कर खा लेने वाली स्थिति हो जाती है।
आज हमने एक ही श्लोक उठाया। ये भगवद्गीता के दुसरे अध्याय का इकहत्तरवां श्लोक है :
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति।।२.७१।।
दुसरे अध्याय पर इसलिए क्योंकि दुसरे अध्याय के दसवें श्लोक से शंकराचार्य का भाष्य आता है। उस से पहले के श्लोंकों पर आदि शंकराचार्य की टिप्पणी नहीं मिलती। विशिष्टाद्वैत और अन्य मतों के आचार्यों ने लिखा है, मगर अद्वैत में उस स्तर की टिप्पणी नहीं है। इस श्लोक की अद्वैत में लम्बी व्याख्या है, बाकी छोटी सी चर्चा करते हैं। मूलतः ये श्लोक अहंकार का त्याग करके कर्म करने की बात करता है।
ऐसा नहीं है कि इस विषय पर ये इकलौता श्लोक है (३.२७, ५.७, ५.८ भी इसी विषय पर हैं)। छठा अध्याय पूरी तरह इसी विषय पर आधारित है (६.७, ६.२९, ६.३१), कई श्लोक देखे जा सकते हैं। समस्या ये है कि अहंकार छोड़ा कैसे जाए ? क्या करना है वो पता हो तो भी कैसे करना है वो नहीं पता। इस समस्या के लिए हमें गौतम बुद्ध की याद आई। वो सिर्फ चार लोगों को देखकर सिद्धार्थ से बुद्ध हो गए थे।
उनका तरीका इस्तेमाल कर लेना आसान है। आस पास के किसी बड़े अस्पताल में जाइए और ब्लड डोनेशन वाले हिस्से में जाइए। बड़ा अस्पताल मतलब सरकारी वाला नहीं, फोर्टिस, अप्पोलो जैसा कोई महंगा अस्पताल चुनिए। यहाँ आये लोग, दुनियावी लिहाज से, मामूली नहीं हैं। वो पैसे से अमीर हैं, जान पहचान की शक्ति उनके पीछे है, ऊँचे पदों की प्रतिष्ठा भी उसके पास है। यहाँ ब्लड बैंक में वो इसलिए हैं क्योंकि उनका कोई प्रियजन खून ना मिलने पर मर सकता है। यहाँ आपको शक्तिसंपन्न नेता-अफसर भी एक निरीह बाप के रूप में दिखेगा।
दयनीय, लाचार, किंकर्तव्यविमूढ़, जो समझ नहीं पा रहा कि मदद किस से मांग ले ? कितनी देर लगेगी भर पूछ लेने पर डपट देने वाले अफसर यहाँ बिलकुल सीधे हुए दिखेंगे। अहंकार तिरोहित हो जाता है। हो सकता है इसे एक बार देखने का असर आपपर ज्यादा देर ना रहे। उस स्थिति में दोबारा घूम आइयेगा। हर तीन चार महीने में रक्तदान कर आना एक अच्छा विकल्प है। दान का पुण्य भी मिल जाएगा और अहंकार भी बिना किसी बाबा की शरण लिए जाता रहेगा। अच्छा महसूस होता है।
बाकी संस्कृत श्लोक को तोड़कर समझना ज्यादा आसान होता है। अलग अलग शब्दों में देखिये : विहाय abandoning? कामान् desires? यः that? सर्वान् all? पुमान् man? चरति moves about? निःस्पृहः free from longing? निर्ममः devoid of mineness? निरहंकारः without egoism? सः he? शान्तिम् to peace? अधिगच्छति attains.
(अद्वैत) क्योंकि ऐसा है इसलिये (आदि शंकराचार्य की टिप्पणी का श्री हरिकृष्णदास गोयनका द्वारा अनुवाद): जो संन्यासी पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको और भोगोंको अशेषतः त्यागकर अर्थात् केवल जीवनमात्रके निमित्त ही चेष्टा करनेवाला होकर विचरता है। तथा जो स्पृहासे रहित हुआ है अर्थात् शरीरजीवनमात्रमें भी जिसकी लालसा नहीं है। ममतासे रहित है अर्थात् शरीरजीवनमात्रके लिये आवश्यक पदार्थोंके संग्रहमें भी यह मेरा है ऐसे भावसे रहित है। तथा अहंकारसे रहित है अर्थात् विद्वत्ता आदिके सम्बन्धसे होनेवाले आत्माभिमानसे भी रहित है। वह ऐसा स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसारके सर्वदुःखोंकी निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्तिको पाता है अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है।